यूएई की मध्यस्थता या भारत की तेल कूटनीति?
-प्रदीप शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार1999 में करगिल युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी ने अमेरिका जैसी महाशक्ति की मध्यस्थता स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। आज का भारत 1999 से कहीं अधिक शक्तिशाली है और उसके पास मोदी के नेतृत्व में दृढ़ इच्छाशक्ति व आंतरिक दबाव से मुक्त सरकार है। यह सरकार संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की मध्यस्थता भला क्यों स्वीकार करेगी? भारतीय व पाकिस्तानी मीडिया में इस आशय की अटकलें लगाई जा रही हैं।
यूएई की मध्यस्थता का हल्ला दरअसल पाकिस्तानी मीडिया ही मचा रहा है और वामपंथी मानसिकता वाला भारतीय मीडिया का एक समूह उसी के सुर में सुर मिला रहा है। यह समूह पाकिस्तान फोबिया से पीड़ित है। वह भारत व पाकिस्तान दोनों को एक ही तराजू पर तौलता है। यह वही वर्ग है जो अतीत में पाकिस्तान से हर कीमत पर दोस्ती का राग अलापता रहा है और सात दशक तक जिसने कश्मीर में अनुच्छेद 370 को वैचारिक खाद-पानी दे कर उसे पाला पोसा।
इन भारतीय पत्रकारों ने यूएई के अमेरिका स्थित राजदूत के उस वक्तव्य पर ध्यान नहीं दिया जिसमें उन्होंने सिर्फ इतना कहा था यूएई ने दोनों देशों(भारत-पाकिस्तान) को स्थान व अवसर उपलब्ध कराया है और वह सिर्फ इतना ही चाहता है दोनों देशों के संबंध अच्छे पड़ोसी की तरह बने रहें।
पाकिस्तानी मीडिया भारत की पाक के साथ बैक चैनल बातचीत को अपने देश की बड़ी सफलता करार देते हुए तब हास्यास्पद हो जाता है जब पाकिस्तान की यह शर्त याद आती है कि वह भारत के 5 अगस्त 2019 के फैसले को वापिस लेने तक कोई कूटनीतिक बातचीत नहीं करेगा। यदि पाकिस्तान अपनी शर्त पर अडिग है तो वह बैक चैनल वार्ता भी क्यों कर रहा है?
तब यूएई की मध्यस्थता की असलियत क्या है? हालांकि, भारत ने उसकी मध्यस्थता संबंधी खबरों का खंडन नहीं किया है। हो सकता है ऐसा राजनयिक शिष्टाचार के कारण से किया गया हो लेकिन यूएई सहित दुनिया के किसी देश की मध्यस्थता भारत स्वीकार करे यह संभव नहीं है।
इसकी संभावना ज्यादा है कि भारत ने यूएई को पाकिस्तान को रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी सौंपी हो और भारत के दबाव में यूएई पाकिस्तान पर दबाव डालकर उसे बैक चैनल बातचीत के लिए राजी करने में सफल रहा हो। ऐसा मानने का पर्याप्त कारण है क्योंकि यूएई सहित खाड़ी के देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भारत है। भारत प्रति वर्ष लगभग चार से पांच लाख करोड़ रुपए का कच्चा तेल इन देशों से खरीदता है। इसका लाभ अतीत में भारत की किसी सरकार ने उठाने की कोशिश नहीं की। की होती तो पाकिस्तान अरब देशों के माध्यम से कभी का सुधर गया होता।
यदि मोदी सरकार अपनी कूटनीति में तेल को शामिल कर रही है तो यह देश के लिए सुखद संकेत है। यदि उसने अभी तक ऐसा नहीं किया है तो उसे अविलंब ऐसा करना चाहिए। उसे अरब देशों पर दबाव डालना चाहिए कि वह पाकिस्तान को रास्ते पर लाएं अन्यथा उन्हें भी इसका खामियाजा भुगतना पडेÞगा। भारत को तेल बेचने के लिए ये देश पाकिस्तान को आसानी से रास्ते पर ला सकते हैं। पाकिस्तान में दम नहीं कि वह अरब देशों की किसी बात का ठुकरा सके।
पाकिस्तान ने दो माह पहले भारत के साथ एलओसी पर सीज फायर का जो नया समझौता किया है तो इसके पीछे निश्चित ही यही तेल कूटनीति है। दुर्भाग्य है भारतीय मीडिया का एक वर्ग इसे न समझते हुए अपने वही पुराने मध्यस्थता राग को अलाप रहा है। इस कूटनीतिक सफलता को देश सही तरीके से समझ सके इसलिए जरूरी है भारत सरकार संकेतों में ही सही इसे उजागर करे। इससे देश का सम्मान बढे
गा।
भारत सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि पाकिस्तान के साथ बैक चैनल संवाद किसी मध्यस्थता का नहीं बल्कि उसकी कूटनीति का नतीजा है। याद करें भारत ने अरब देशों से कच्चे तेल के आयात में कटौती की है। निश्चित ही इसका संबंध कीमत से तो है ही पाकिस्तान को रास्ते पर लाने की की दीर्घकालिक रणनीति भी हो सकती है।